लोगों व प्रकृति को समझते हुए नीतियाँ कब बनेंगी?

 विक्रम सिंह जाट, झुंझुनू


एक्सपर्ट किताबों तक ठीक हैं,
रियल लाइफ में प्रेक्टिकल ज्ञान ही काम आता है। सरकारों को भी प्रकृति व लोगों को कंट्रोल करने का प्रयास करने की बजाय ... लोगों व प्रकृति को समझ कर पोलिसिज बनाने के प्रयास करने चाहिएं ...तब ही हर समस्या का हल निकल सकता है।

        आपके गाम में खेती होती है, आपके बूढ़े करते आ रहे थे,  उनसे आपने सिखा ....सब खेती करते, मौज करते।  बूढ़ों ने अपने हिसाब से सब समस्याओं का हल निकाल रखा था लेकिन फिर कोई अचानक से डिग्रियों के तमगे के साथ बाहरी आदमी आता है, वो जिसने कभी जिंदगी में देशी बाजरा कैसा होता या देशी गैंहू कैसा होता तक नहीं देखा...वो जिसने ना कभी तुम्हारे खेत देखे। वो आदमी जिसे ये तक नहीं पता की निनाण क्या होता है या खोदी क्या होती है? वो आदमी बताता है कि ऐसे खेती करो,  ये खेती करो... ऐसे पानी का इंतजाम करो... ऐसे खाद का इंतजाम करो... सरकार भी उस आदमी को एक्सपरट कमेटी मानकर अपनी पोलिसिज बणाये तो फिर बताऔ आपकी समस्या कैसे हल होगी?

       हरियाणा पंजाब में खराब होती जमीनें हो या बीमार होते लोगों से लेकर बिहार, आसाम की बाढ़... हर समस्या के पीछे एक ही कारण है।  लोकल लोगों के अनुभवों को जीरो समझ लेना...लोकल लोगों को एकदम दरकिनार कर देना। कहणे को तो लोकतंत्र, वोकतंत्र की खूब किताबी कहानियां चलायी जाती हैं।  कभी किताबों में लोकतंत्र जोङा जाता है, कभी हटाया जाता है...लोग भी उसी हिसाब से भावनाओं में बह कर सिलेबस में लोकतंत्र घटाणे-बढ़ाने पर दु:ख, घुस्सा प्रकट करते हैं। किताबों के आधार पर ही भविष्य में देश ये हो जायेगा की कल्पना भी करते आये हैं लेकिन क्या सही मायने में यहां लोगों का तंत्र है? वैसे लिंकन के शब्दों में लोकतंत्र "जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन " बताते हैं।”

       अब इतनी बकलौली करे बिना "जनता का खुद के लिए शासन ही" क्यों नहीं बोल देते लोकतंत्र को? हमारे लोकतंत्र में जनता खत्म हो गयी है, यहां जनता की जगह बस "कुछेक" रह गये हैं। उसी कारण लोकतंत्र सीधे सपाट शब्दों में "कुछेक का खुद के लिए शासन" रह गया है। यहां गांवों के, जनता के अनुभव... सलाह नहीं ली जाती,  यहां ये सब कुछेक द्वारा कर दिया जाता है। पढ़ाई तो मानों यहां उन कुछेक के

 

निर्णय को जस्टीफाई करने,  प्रमोट करने का सौदा मात्र है।

       आज आसाम बाढ़ में डूब रखा है,  उसके पीछे भी सीधा सीधा कुछेक के निर्णयों या एक्सपरट विचारों के आधार पर चलना ही है। "बांध बणाओ, नदी जोड़ो,  दो नदियों को जोड़कर छोटी वाली पर बांध बणाओ,  या मल्टीपरपज बांध बणाओ" ...ऐसे ऐसे सैंकड़ों निर्णय कुछेक लोगों ने करोङों लोगों को पूछें बिना लिये। निर्णय लिये ही नहीं, उन निर्णयों के काल्पनिक फायदे भी प्रेक्टिकल पर चलणे वाली कौमों को रटवा दिये। आज भी हमारी किताबों में हरित क्रांति, से लेकर बांध बणाने को फायदे का सौदा बताया जाता है। बार बार ऐसे झूठ चलाने से लोगों को भी अब इन काल्पनिक बातों पर यकीन हो गया है। सरकारों ने भी सरकारी मसीहा पैदा करके ऐसी ऐसी चीजों को प्रमोट किया,  अखबार,  न्यूज हर साधन से प्रमोशन किया गया। किसी चीज का प्रमोशन उस चीज को थोंपने के लिए ही किया जाता है, अगर वो चीज सही में जरूरी होगी तो लोग अपने आप ही उसको अपना लेंगे या उसका जुगाङ निकाल लेंगे। असली समस्या यही है, लोग सरकारों के इतने कंट्रोल में आ गये हैं कि वो खुद का भला-बुरा भी नहीं समझ पा रहे हैं। उनके हिसाब से सरकार की प्रमोटेड चीजें अच्छी हैं, जबकी खुद की चीजें बुरी हैं। इसी का परिणाम हुआ... सरकार ने मनमर्जी से इश्यू क्रियेट किये .. मनमर्जी से लोगों को नचाया।

       बिहार, आसाम की बाढ़ ....ये बाढें.. एक दिन की गलती का परिणाम नहीं है, ये सालों से लोगों को, प्रकृति को कंट्रोल में करणे के प्रयासों का नतीजा है। अंग्रेजों से लेकर आज तक ज्यों-ज्यों लोगों पर कंट्रोल बढता गया है, त्यों-त्यों ये समस्या गहरी ...ना सुलझणे वाली पहेली बण गयी है। बाढ़ 1850 से पहले भी आती थी,  बाढ उसके बाद भी आ रही है, लेकिन क्यों ये बाढ पहले खतरनाक नहीं थी,जो अब खतरनाक हो गयी है? आसाम में बाढ 1947 में आजादी के समय भी आ रखी थी, वहां के लोगों को ये पता भी नहीं था, कि आजादी नाम की कोई चीज आयी है।

सुणने में आता है, वो बाढ भी आज जितनी खतरनाक नहीं थी,  लोगों ने आराम सै सब सही कर दिया था। लेकिन कैसे आज की बाढ़ खतरनाक हुयी? इसके पीछे कारण है, सरकार ...व सरकार की प्रकृति को थामने की कोशिशें।

       बूढ़ों को पता होता था, कितनी बारिश होणे पर किधर वाले नाले में ज्यादा पाणी आता था, लेकिन बहुउद्देशीय परियोजनाओं व बांध निर्माण व नदी जोड़ परियोजनाओं ने सारे प्राकृतिक अनुभवों धुंधला पङ जाने दिया। अब जब भारी बारिश होती है, फटती में सरकार को पाणी छोङना पङता है, उसके नतीजतन नदियां रास्ता भटकने लगी हैं। भुकंप वगैरह के कारण या,  खराब बनावट के कारण बांध टुटने जैसी हालात भी सरकार ने ही पैदा की हैं। हजारों पेड़ पौधे काटे गये जो नदी के बहाव को रोकते थे मिट्टी को कटने से रोकते थे...वो भी आधुनिकता की अंधी दौड़ के कारण हुआ।

       बांध बणने से सुखे पङे एरिया में लोग बस गये ... लेकिन जब बांध टुटे या बांध ओवर फ्लो हुये तब वो सब झुग्गी झोपड़ियां साथ बह गयी... उन्होंने ब्लोकेज पैदा किये...नये इलाकों तक पानी पहुंचा...बाढ के प्रभाव का क्षेत्र और बढ़ा। आज बिहार का 73% भाग बाढ प्रोन है, जबकी आसाम का लगभग 50% भाग। गौर करने की बात ये है, कि ये एरिया बढ़ ही रहा है। सरकारें आयें जायें ये समस्या तब तक सोल्व नहीं हो सकती जब तक लोकल लोगों से इसका समाधान ढुंढा नहीं जायेगा।

       एक्सपर्ट किताबों तक ठीक हैं, रियल लाइफ में प्रेक्टिकल ज्ञान ही काम आता है। सरकारों को भी प्रकृति व लोगों को कंट्रोल करने का प्रयास करने की बजाय ... लोगों व प्रकृति को समझ कर पोलिसिज बनाने के प्रयास करने चाहिएं ...तब ही हर समस्या का हल निकल सकता है। वरना मारते रहो

“धुळ में लट्ठ।”

Post a Comment

0 Comments