एक पेज की विवादास्पद किताब के लेखक से गवाह का साक्षात्कार

क्या धर्म से परे पहचान की कोई जगह है, या धर्म खुद समाज में आयी बहुत नयी व‌ बाहरी पहचान है? क्या जातीय जीवनशैली और धार्मिक रीतियों का वाकई कोई संबंध नहीं? एक पेज की किताब ने बहुत से सवालों को फिर से जगा दिया है। विवाद की जड़ में एक साधारण-सी दिखने वाली किताब है, मात्र एक पन्ने की। 

शीर्षक है: “जाट सिर्फ जाट होता है।” लेखक हैं विक्रम कानसुजिया- एक किसान, विचारक, किताब का संदेश साफ है, लेकिन इसकी गूंज दूर तलक गई। और यही गूँज और कुछ सवालों की जिज्ञासा ने गवाह को प्रेरित किया एक बड़ी समझ के धनी से साधारण साक्षात्कार हेतु। 


पहला सवाल   -   आपने ये पुस्तक क्यों लिखी ?

जवाब - मैंने ये पहली पुस्तक लिखी है,जिसका मुल उद्देश्य ये है कि जाट केवल जाट होता है,उसका धर्म से कोई वास्ता नहीं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश आदि हर जगह आज जाट समाज की सबसे बड़ी समस्या है धर्म में पङ अपनी गामङू सभ्यता से मुख मोङ लेना है। खेती किसानी करके दुनिया का पेट भरने वाली कौम आज जगह जगह रोङों पर कहीं फलाने बाबा के जा रही है, कहीं फलाने डेरे में जा रही है,या कहीं गुरूद्वारे में जा रही है जबकि उसका असली इतिहास ,असली विरासत पीछे छोङकर आये उन गाम खेतों में ही है। यहां तक की गामों में जहां सुबह से शाम तक लोग खेत में काम करते हैं, वहां भी पांडाल सजाये जा रहे हैं,और धार्मिक रायता फैलाया जा रहा है।

अकेले जाट ही नहीं, हर गामङू कौम के लिए धर्म की पहचान ले, घर की चार दिवारी से बाहर निकलना ही सबसे बड़ी समस्या है,इसे अपने घरों तक सीमित रखना चाहिए। आज इसको रोङो पर बिखेर कर हम सार्वजनिक उपद्रव ही फैला रहे हैं, और कुछ नहीं। गाम कौम को मजबूत करो, सबकुछ अपने आप मजबूत हो जायेगा।

दूसरा सवाल- किताब की सबसे ख़ास बात, इसे केवल एक ही पेज में लिखा गया है, ऐसा क्यों?

जवाब-   सुबह से शाम तक खेत में काम करने वाली किसान कौम के लिए धर्म उनकी जीवन शैली का बहुत ही नगन्य भाग है क्योंकि धर्म गामङू सभ्यता का नगन्य भाग है, इसलिए इस नगन्यता को दर्शाने के लिए इसे एक पेज में लिखा गया है, निष्कर्षात्मक रूप में। वैसे इसे एक पेज में लिखने का मतलब है, महत्व नहीं देना धर्म के इम्प्रोटेंस को ही नकार देना। गामड़ू सभ्यता में धर्म की भूमिका सदैव नगण्य रही है।इस नगण्यता को समझाने के लिए ज़रूरी था कि किताब भी उतनी ही नगण्य लंबाई में सिमटी हो, एक निष्कर्ष में, एक संकेत में।कुल मिलाकर धर्म का गामड़ू जीवन में कोई महत्व नहीं और एक पेज में लिखने का मक़सद सिर्फ और सिर्फ इसकी महत्वहीनता को दर्शाना है।

तीसरा सवाल - आपने इस एक पेज में धर्म को सरकारी घोषित कर दिया! क्या धर्म वाकई सरकारी विषयवस्तु है?

जवाब - धर्म एक सरकारी सब्जेक्ट ही है, क्योंकि इसे जनता के बीच सरकार ने ही इंट्रोड्यूसकिया है। कभी सरकारी फॉर्म में धर्म का कॉलम, कभी जनगणना में धर्म की गिनती, तो कभी सरकारी योजनाओं में धर्म के आधार पर बँटवारा करने आदि ये सब संकेत और सबूत हैं कि धर्म लोगों के जीवन में ऊपर से थोपा गया एक "एडमिनिस्ट्रेटिव वैरिएबल' है।सरकार को जनता को गवर्न करना है, लोग समाज से कट होकर इंडिविजुअल लाइफस्टाइल में जिए तो उन पर सरकारी पोलिसी थोपना आसान हो जाता है। साथ ही धर्म जैसे एक काल्पनिक धागे के सहारे लोगों   को बांधकर भी रखा जाता है, ताकि जब चाहे वैसे पोलिसिज की स्वीकार्यता भी मनवा ली जाये।इससे व्यक्ति अपने असली अस्तित्व, अपने हक़ और अपनी ज़मीन से कट जाता है, फिर वो उसी हिसाब से चलता है जैसा सरकार द्वारा पोषित धर्म चलाता है, फिर वो समाज की बजाए सरकार के हितों पर काम करने लगता है। इसलिए साफ़ है धर्म की जरूरत आम लोगों को नहीं, सरकार को है। सरकारें समय-समय पर धर्म और उससे जुड़ी संस्थाओं को फंड देकर पोषित करती हैं, ना कि गाम समाज व उसकी परंपराओं को।  गाम समाज, उसका पंचायत तंत्र, उसकी लोक परंपराएं, और उसकी असली सामाजिक इंस्टीट्यूशन्स आदि सभी विषयवस्तु जो समाज की अपनी थी, उन्हें तो सोची-समझी चाल से या तो हाशिए पर डाल दिया है या विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया   है।

चौथा सवाल - "चार गौत छोड़कर ब्याह करना: बुजुर्गों की व्यवस्था" इसका प्रयोग आपने जाटों को सिर्फ अलग दिखाने के लिए किया या कुछ और प्रयोजन रहा है ?

जवाब - हमारे बुजुर्गों ने हमेशा ये कहा कि "चार गौत छोड़कर ब्याह करना, और जाटों में ही करना' इसका मतलब साफ़ है, बुजुर्गों की नज़र में जाट एक नस्ल है और इस नस्ल को शुद्ध व जीवित बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था दी गई जो किसी भी विज्ञान द्वारा नकारी नहीं जा सकती। अगर धर्म किसी पहचान की बुनियाद होता, तो बुजुर्ग यह भी कह सकते थे कि हिंदू-मुस्लिम-सिख-जाट सब एक हैं, इनसे भी कर लो ब्याह।लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि धर्म को पूरी तरह नजरअंदाज कर, उन्होंने केवल विशेष नस्लीय पहचान यानी जाट को वंश चलाने के योग्य माना।

इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं:

1. धर्म समाज के लिए गौण विषय है, नस्ल और खून की शुद्धता प्राथमिक है।

2. गाम समाज की व्यवस्थाएं धर्म नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना और खून पर आधारित हैं।

साफ़ है गामड़ू  समाज की व्यवस्था में धर्म की नहीं, खून की भाषा समझी जाती थी, है और रहेगी जबकि धर्म इस मुकाम पर कभी रहा ही नहीं। हालांकि समाज कुछ कमजोरों को स्वत: निस्तारण से बाहर भी निकालता है जो समाज से बाहर शादी करते हैं।

 

पांचवां सवाल - क्या दुनिया की अन्य कौम भी इस तरह से नस्लीय शुद्धता बनाती हैं! आपकी जानकारी में हो तो बताओ।

जवाब - दुनिया में सबसे ज्यादा नोबेल  प्राइज किसके पास हैं, यहूदी ...!!! दुनिया की बैंकिंग, मीडिया, टेक्नोलॉजी, लॉबीइंग और पॉलिसी मेकिंग को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली कौम कौन उत्तर होगा यहूदी। वो भी नस्लीय शुद्धता बनाते हैं, तो जरूर कुछ तो बात रही होगी हमारे बुजुर्गों की नस्लीय शुद्धता वाले कंसेप्ट में। ये कौम आज भी नस्लीय शुद्धता को बनाए रखती है। इंटरफैथ मैरिज को वे सीधे अपनी नस्ल पर हमला मानते हैं। संख्या में सिर्फ 1.5 करोड़, लेकिन असर में दुनिया पर भारी।

दूसरी ओर, जाट तो जनसंख्या में दस करोड़ के आसपास हैं, फिर वो क्यों अपनी नस्ल को संरक्षित नहीं करेंजरूर कुछ तो समझदारी रही होगी इस नस्लीय शुद्धता के कांसेप्ट में, जो हमारे बुजुर्ग बिना किताबों के, सिर्फ अनुभव से समझ गए। हमारी सभ्यता की व्यवस्था बाहरी दिखावे नहीं, बल्कि खून की निरंतरता पर टिकी थी। ये धर्म की राजनीति तो बाद में आई, पहले समाज चला करता था नस्ल के संतुलन से।

छठा सवाल -   आप तो जाति/नस्ल की पहचान को वापस स्थापित कर रहे हो! जाति की पहचान को समाप्त करके जाति विहीन समाज के निर्माण की चाह रखने वाले सामाजिक आंदोलनों का क्या होगा ऐसे में?

जवाब - अपने समाज में जाति हैं, इसलिए गरीबों को भी लङकी मिल जाती है, अगर यहां जाति ना हो तो गरीबों का कभी ब्याह भी ना होये। जाति सामाजिक सुरक्षा है। अगर आज के समाज से जाति पूरी तरह हट जाए, और सारी व्यवस्था "मैरिट' या "धन' पर आ टिके तो गाम के ग़रीब लोगों की हालत बहुत खस्ता होकर सस्ती हो जायेगी क्योंकि तब न कोई जातिगत जुड़ाव रहेगा, न सामाजिक दबाव। सिर्फ पैसे, स्टेटस और "मौके' ही रिश्तों का आधार बन जाएँगे। समाज जिस दिन जाति विहीन समाज बनाने के लिए  इन मुर्ख लोगों के कदमों पर चलना शुरू कर देगा, उस दिन समाज फिर दूसरे उपवर्गों में बंटेगा जैसे अंग्रेजी बोलने वाले और बिना अंग्रेजी बोलने वाले, शहरी बनाम ग्रामीण, उच्च वर्ग बनाम निम्नवर्ग। यहाँ सवाल ये आएगा कि ऐसी स्थिति में समाज रहेगा ही नहीं? साफ़ जगजाहिर हो जाना चाहिए कि जाति हैं, तो आज समाज जिंदा है,गांव जिंदा है। क्या हम अपने बाप के बेटे हैं इस पहचान को मिटा सकते हैं? नहीं। बिल्कुल नहीं। जिस तरह ये पहचान हमारे वजूद की नींव है, वैसे ही हमारा खून, हमारी नस्ल, जड़ें आदि सब पूर्वजों से सीधा जुड़ाव हैं।

सातवां सवाल - "क्या नस्लीय जुड़ाव, पूर्वजों से नाता और खून की पहचान भी एक कल्ट है?" जो अपने वंश को जानना और बचाना भी राष्ट्रवाद, धर्म या सम्प्रदायवाद की तरह देखी जानी चाहिए, बताइये

जवाब - अपनी जड़ों, अपने पूर्वजों और अपनी पहचान पर गर्व करना कोई कल्ट नहीं होता। ये आत्मबोध होता है। ये किसी से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं, बल्कि अपनों से जुड़ाव का एहसास है। हर गहरी भावना जो लोगों को आपस में जोड़ती है, उसे कल्ट नहीं कहा जा सकता। कुछ चीजें सिर्फ अपनेपन और स्वाभिमान की बात होती हैं।  ये जानना कि तुम कहां से आए हो, इसका मतलब ये नहीं कि तुम दूसरों के खिलाफ हो। इसका मतलब बस इतना है कि तुम्हें पता है तुम कौन हो। "अपने खून की इज्जत करना कल्ट नहीं होता। कुत्ता भी अपनी नस्ल पहचानता है। तो हम क्यों नहीं?

आठवां सवाल : बहुत सारी जानकारी आपसे हमें मिली है जो शायद ही किसी किताब में मिलती! अंतिम सवाल अब आप ये बताइए आपको इस किताब से उम्मीद क्या है?

जवाब - धन्यवाद, ख़बर गवाह ने सब जानना चाहा व मेरे को स्पेस दिया। मैं ही नहीं सभी की चाह उस परकाष्ठा तक होनी चाहिए कि गामङू कौम अपनी जङों को संभाले, एक पेज की किताब हर आदमी पढ़ सकता है, वो जरूर इस बारे में सोचें ... मैं ये नहीं बोल रहा आप मेरे पीछे चल पङो ...आप घर से बाहर फैलाये जा रहे धार्मिक रायते से दूर रहकर... एकबार सोचिए, क्या आपके बुजुर्ग भी ऐसा करते थे? अगर वो नहीं करते थे तो फिर तुम क्यों इन सब परजीवियों के विषय में इंटरेस्ट ले रहे हो? अपने गाम, अपने खेत और अपने कुणबे को मजबूत करो ... सब कुछ अपने आप मजबूत हो जायेगा ।


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